भाव में शृंगार मद्धम हो चला है
जानती हूँ प्यार कम-कम हो चला है
पहुँचती तो है तुम्हारी बात मुझ तकचल
शिथिलता से समन्वय के पुलों पर
फूल से ये वादियाँ अब भी भरी हैं
क्यों न कोई है सजा इन कुंतलों पर !
लहर में छिटके रूमालों सा सरल मन
बूड़ता, कभी तैरता, दम खो चला है।
प्रेम से बढ़ कर हैं मसले जीविका के
हर खुशी समराशि ऋण का भार भरती
और अति-परिचय अरुचि को जन्म देता
नहीं कहती, पर मैं सच स्वीकार करती
महानगरों में सिमटते बाग-बिरवे
चार गमलों में कोई गम बो चला है।
राधिका! अब श्याम पहले सा नहीं है
आएगा भी तो बँधेगा क्या नयन से?
विश्वहित जो छोड़ता सर्वस्व अपना
मानिनी! प्रतिवाद क्या उसके चयन से?
वेणु! अब कटि-काछनी में लौट जाओ
युद्ध तुरही नाद पंचम हो चला है।